कमल नाथ के हाथों से गई मध्य प्रदेश सरकार


आखिरकार कमल नाथ ने मान लिया कि उन्होंने काफी पहले विधायकों का और उस नाते जनता का विश्वास खो दिया था। पंद्रह महीने तक उन्होंने राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर शासन तो कर लिया लेकिन वह सिर्फ जोड़ तोड़ के कारण था। शुरूआत 2018 के दिसंबर में नतीजा आने के साथ ही हो गई थी जब कांग्रेस को भाजपा के मुकाबले छह सात सीटें ज्यादा तो मिली थीं लेकिन वोट कम मिले थे। यानी संख्या के हिसाब से ज्यादा लोगों ने भाजपा को ही वोट दिया था। कांग्रेस के अंदर नेतृत्व को लेकर भारी खींचतान थी और किसी तरह बसपा, सपा व अन्य को मिलाकर सरकार बना ली गई थी। यही नहीं लगभग उसी वक्त से कमल नाथ की ओर से दावे भी किए जाने लगे थे कि भाजपा के लगभग एक दर्जन विधायक उनके संपर्क मे हैं।


एक दिन पहले तक कमल नाथ की ओर से दावा किया जा रहा था कि उनके 16 विधायकों को भाजपा ने बंधक बनाकर रखा है, हालांकि उन विधायकों की ओर से चीख-चीख कर कहा जा रहा था कि वह किसी शर्त पर कांग्रेस के साथ नहीं रहना चाहते। उससे पहले कोरोना की आड़ में विधानसभा की बैठक 26 तक के लिए स्थगित कर दी थी। अब जबकि कोर्ट का डंडा पड़ा तो सदन में बहुमत साबित करने या फिर वहां अपनी बात रखने की बजाय उन्होंने मीडिया से बात करना ज्यादा मुनासिब समझा। स्पष्ट है कि उनका आत्मविश्वास कितना हिला हुआ था। कांग्रेस पहले कर्नाटक में इसी तरह सरकार गंवा चुकी है। अब मध्य प्रदेश में सरकार गई। सवाल यह है कि इसके लिए क्या सिर्फ कमलनाथ या सिद्धारमैया जिम्मेदार हैं या फिर केंद्रीय नेतृत्व को इसकी जिम्मेवारी लेनी चाहिए। दरअसल नेतृत्व की कमजोरी के कारण ही कर्नाटक और अब मध्य प्रदेश की घटना हुई है। मध्य प्रदेश में जिस तरह कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की जोड़ी ने मिलकर ज्योतियादित्य सिंधिया और उनके समर्थकों को नाराज किया और अपने लोगों को पुरस्कृत किया तथा कांग्रेस नेतृत्व चुप्पी साधे बैठे रहा, उसी का नतीजा है।